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पिछले 32 सालों से यूपी के मतदाताओं ने किसी को दोबारा सत्ता में आने का मौका नहीं दिया

2022 के विधानसभा चुनाव के लिए यूपी की राजनीति में दो प्रमुख बदलाव दिख रहे हैं। पहला तो आगामी विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की एंट्री होने वाली है।

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uttar pradesh elections

अगले वर्ष होने वाले उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव को लेकर तमाम राजनैतिक दलों के नेताओं की धड़कनें बढ़ी हुई हैं। 14 मार्च 2022 से पूर्व 18वीं विधान सभा का गठन होगना है। यानि 14 मार्च से पूर्व चुनाव के नतीजे आ जाएंगे और 19 मार्च को रंगों का त्योहार होली मनाई जाएगी। नतीजे किस पार्टी और नेता की होली बदरंग करेंगे और किसकी होली में नये रंग सजेंगे, यह भविष्य के गर्भ में छिपा हुआ है। बीजेपी यानी योगी फिर सत्ता में आएंगे या माया-अखिलेश के सिर सत्ता का ताज सजेगा। जैसा कि पिछले 30-35 सालों से यूपी में होता आया है, इन तीन-साढ़े तीन दशकों में यूपी में मतदाताओं ने किसी भी दल को लगातार दो बार सत्ता सुख हासिल करने का मौका नहीं दिया है। ऐसा ही हुआ तो क्या बीजेपी सत्ता से बाहर हो जाएगी ? सवाल यह भी है कि यूपी में करीब 32 वर्षों से हाशिये पर पड़ी कांग्रेस अपनी खोई हुई जमीन तलाशने में पुनः सफल हो जायेगी।

यूपी विधानसभा चुनाव के लिए बड़ी राजनैतिक पार्टियां तो जोर आजमाइश कर ही रही हैं, इसके अलावा कुछ अन्य प्रदेशों में सत्तारुढ़ दलों के नेता भी अपनी पार्टी को विस्तार देने के लिए यूपी में जड़ें तलाशने में जुटे हैं। इसमें दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी के नेता और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की नेत्री ममता बनर्जी, जनता दल युनाइटेड के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार शामिल हैं। इसी प्रकार से लम्बे समय तक बिहार के मुख्यमंत्री रह चुके लालू यादव की राजद और बिहार के पहले पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (हम) भी यूपी चुनाव में अपनी किस्मत अजमाने को आतुर हैं। वहीं बिहार विधान सभा चुनाव में अपनी थोड़ी ताकत दिखा चुके हैदराबाद के सांसद और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के राष्ट्रीय अध्यक्ष असद्दुदीन ओवैसी को भी लगता है कि वह बिहार की तरह यूपी में भी चमत्कार कर सकते हैं। ओवैसी ने पहले समाजवादी पार्टी और बसपा से गठबंधन की कोशिश की थी, लेकिन माया-अखिलेश ने ठेंगा दिखा दिया तो अब ओवैसी ने ओम प्रकाश राजभर की पार्टी से समझौता कर लिया है। औवैसी को वीआईपी पार्टी के नेता और बिहार के मंत्री मुकेश सहनी का भी साथ मिला हुआ है। मुकेश सहनी ने ही गत दिनों दस्यु सुंदरी दिवंगत फूलन देवी की मूर्तियां लगाने की बात कही थी, जिस पर काफी विवाद हुआ था।

2022 के सियासी संघर्ष में यूपी की एक और पुरानी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है। कभी जिसके मुखिया पूर्व प्रधानमंत्री और किसानों के बड़े नेता चौधरी चरण सिंह हुआ करते थे। यह और बात है कि तब पार्टी का नाम थोड़ा छोटा सिर्फ ‘लोकदल’ हुआ करता था। बाद में उनके पुत्र अजित सिंह ने इसी पार्टी की कमान संभाली और आज की तारीख में चौधरी चरण सिंह के पौत्र जयंत चौधरी के हाथ में पार्टी की कमान है। रालोद का यह दुर्भाग्य है कि कभी पश्चिमी यूपी की सियासत की धुरी बने रहने वाली रालोद अब बैसाखियों के सहारे चलती है। सत्ता का कांटा जिधर झुकता है, चौधरी उधर हो जाते हैं। अबकी से रालोद नेता, नये कषि कानून के विरोध में आंदोलन चला रहे भारतीय किसान यूनियन के सहारे अपनी चुनावी नैया पार करने का सपना संजोए हुए हैं। सपा के साथ भी रालोद का गठबंधन होने की पूरी उम्मीद है।

बहरहाल, 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए यूपी की राजनीति में दो प्रमुख बदलाव दिख रहे हैं। पहला तो आगामी विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम और अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की एंट्री होने वाली है। दूसरे, समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने बड़े दलों और आवैसी की पार्टी के साथ गठबंधन से तौबा करके छोटे दल को जोड़ने का दांव चल दिया, लेकिन अखिलेश छोटे दलों को अपने साथ जोड़ पाते इससे पहले ही सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के प्रमुख ओमप्रकाश राजभर ने मौके को भांप कर कुछ छोटे दलों को जोड़कर ‘भागीदारी संकल्प मोर्चे’ को और मजबूत कर लिया। छोटी पार्टियों का यह गठबंधन ओवैसी से लेकर अरविंद केजरीवाल और अखिलेश के चाचा और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष शिवपाल यादव सभी को भी लुभा रहा है। भागीदारी संकल्प मोर्चे का गठन 2019 में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) के ओमप्रकाश राजभर और जन अधिकार पार्टी के बाबू सिंह कुशवाहा की अगुआई में किया गया है। छोटे दलों वाले इस मोर्चे में कुल 8 दल शामिल हो चुके हैं। ओवैसी पिछड़े वर्ग में मजबूत पैठ रखने वाले इस मोर्चे का फायदा बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी उठाना चाहते हैं।

असल में बिहार में एआईएमआईएम को 5 सीटें मिलने में वहां छोटे दलों के बने गठबंधन की अहम भूमिका रही थी, जिसमें ओम प्रकाश राजभर भी शामिल थे। मोर्चे में शामिल होकर ओवैसी प्रदेश के 22 फीसदी मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाना चाहते हैं। इस रणनीति के तहत ओवैसी की पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीटों पर खास नजर है। इस मोर्चे में राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी), बाबू सिंह कुशवाहा की जन अधिकार पार्टी, कृष्णा पटेल का अपना दल (के), ओवैसी की एआईएमआईएम, प्रेमचंद्र प्रजापति की भारतीय वंचित समाज पार्टी, अनिल चौहान की जनता क्रांति पार्टी (आर) और बाबूराम पाल की राष्ट्र उदय पार्टी आदि शामिल हैं।

इस बीच अपनी अहमियत बढ़ती देख ओम प्रकाश राजभर अन्य दूसरे छोटे दलों को लुभाने में लग गए हैं। ओमप्रकाश राजभर की कोशिश यही है कि वे ज्यादा से ज्यादा छोटी पार्टियों को अपने साथ जोड़ सकें। असल में प्रदेश के 29 जिलों में करीब 140 सीटें ऐसी हैं, जहां राजभर वोट 20 हजार से 80 हजार के करीब हैं। ऐसे में ओवैसी के मुस्लिम वोट और दूसरे दलों के वोट मिलकर मोर्चे को ‘किंग मेकर’ की भूमिका में ला सकते हैं। राजभर दावा भी कर रहे है कि भागीदारी संकल्प मोर्चे की पहुंच 43 फीसदी पिछड़ों तक हो गई है। ऐसे में एक बात तो तय है कि 2022 के चुनावों में हम नई ताकत होंगे। खैर, राजभर का दावा अपनी जगह है लेकिन राजनीति के जानकार कहते हैं कि आम तौर पर ऐसे छोटे-छोटे दल चुनाव के आसपास दिखाई तो पड़ते हैं पर चुनाव के बाद यह बहुत तेजी से गायब भी हो जाते हैं।

बात विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव के छोटे दलों से समझौते वाले बयान की कि जाए तो ऐसा लगता है कि अखिलेश के पास विकल्प काफी कम बचे हैं? हाल ही में सपा ने महान दल के साथ हाथ मिलाया है, जिसका राजनीतिक आधार बरेली-बदायूं और आगरा के इलाके में है। जनवादी पार्टी के संजय चौहान भी समाजवादी पार्टी के साथ जा सकते हैं। जनवादी पार्टी सपा के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ चुकी है। इसी प्रकार स्वर्गीय सोने लाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल वाला अपना दल भी सपा से गलबहियां करता दिख रहा है, लेकिन अखिलेश की सबसे बड़ी चिंता उनके चाचा शिवपाल यादव हैं, जो प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) के मुखिया हैं। बीच में अखिलेश ने उन्हें अपने साथ लाने की कोशिश की थी, लेकिन उन्हें एडजस्ट करने का ऑफर शिवपाल को नहीं भाया था।

क्त दलों के अलावा राष्ट्रीय क्रांतिकारी समाजवादी पार्टी अध्यक्ष गोपाल राय अलग दावा कर रहे हैं कि उन्होंने 46 दलों का एक ‘राजनैतिक विकल्प महासंघ’ बनाया है जो सभी 403 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारेगा। इसी तरह से पीस पार्टी, मिल्ली काउंसिल, केन्द्रीय मंत्री और रिपब्लिक पार्टी आफ इंडिया ए के अध्यक्ष रामदास अठावले, निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद आदि भी चुनावी समर में ताल ठोंक रहे हैं। वहीं जेल में बंद कुछ बाहुबली भी अपने दबदबे वाले क्षेत्रों से अपनी किस्मत अजमाने की चाहत रखते हैं। इसमें बाहुबली मुख्तार अंसारी जैसे लोग शामिल हैं। अठावले और जदयू क्रमशः दिल्ली और बिहार में तो साथ-साथ हैं, लेकिन यूपी में यह दल भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे ऐसा होता दिख नहीं रहा है। 2017 में भी जदयू बिहार में भाजपा से गठबंधन होने के बाद भी यूपी में अकेले ही चुनाव लड़ी थी।

बात बसपा सुप्रीमो मायावती की कि जाए तो वह पहले ही कह चुकी हैं कि उनकी पार्टी किसी से गठबंधन नहीं करेगी। कांग्रेस को छोटा-बड़ा कोई दल इस लायक समझ ही नहीं रहा है कि उसके सहारे चुनावी नैया पार लग जायेगी। रही बात भाजपा की तो जिस राजनीति को अब विपक्षी दल 2022 में करने की कोशिश में लगे हैं, उसे 2002 में ही भारतीय जनता पार्टी ने भांप लिया था। वह उस वक्त से क्षेत्रीय स्तर पर मौजूद छोटे दलों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश करती रही है, जिसका उसे 2017 के चुनावों में सबसे प्रभावी परिणाम मिला। फिलहाल, भाजपा को इस समय अपना दल (एस) का साथ मिला हुआ है, जिसका नेतृत्व स्वर्गीय सोनेलाल पटेल की पुत्री अनुप्रिया पटेल कर रही हैं जो हाल-फिलहाल में मोदी कैबिनेट में राज्य मंत्री भी बनाई गई हैं। जबकि भाजपा के पुराने साथी रहे ओम प्रकाश राजभर अब उसके लिए चुनौती बनने को बेकरार हैं।

बहरहाल, कुछ भी हो लेकिन बहुत छोटे और तात्कालिक हितों की रक्षा एवं जातीय और धार्मिक आधार पर बनाये गए राजनीतिक दलों के अस्तित्व को राजनैतिक और सामाजिक बुद्धिजीवी लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं मानते हैं। इसका कारण ये है कि मुद्दा-हीन चुनावों में मतदान पचास प्रतिशत के आस-पास होने से जीत-हार का अंतर बहुत कम हो जाता है। इस स्थिति में बहुत छोटे-छोटे दलों के प्रत्याशियों के पाए मतों की वजह से चुनाव परिणामों में बड़ा अंतर आ जाता है। ऐसे में लाख टके का सवाल यही है कि क्या उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में छोटे-छोटे दलों की बड़ी-बड़ी हरसतें परवान चढ़ पाएंगी।

-संजय सक्सेना

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