सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर जातीय आरक्षण के औचित्य पर प्रश्न-चिन्ह लगा दिया है। पांच जजों की इस पीठ ने अपनी ही अदालत द्वारा 2004 में दिए गए उस फैसले पर पुनर्विचार की मांग की है, जिसमें कहा गया था कि आरक्षण के अंदर (किसी खास समूह को) आरक्षण देना अनुचित है याने आरक्षण सबको एकसार दिया जाए। उसमें किसी भी जाति को कम या किसी को ज्यादा न दिया जाए। सभी आरक्षित समान हैं, यह सिद्धांत अभी तक चला आ रहा है। ताजा फैसले में भी वह अभी तक रद्द नहीं हुआ है, क्योंकि उसका समर्थन पांच जजों की बेंच ने किया था।
अब यदि सात जजों की बेंच उसे रद्द करेगी तो ही आरक्षण की नई व्यवस्था को सरकार लागू करेगी। यदि यह व्यवस्था लागू हो गई तो पिछड़ों और अनुसूचितों में जो जातियां अधिक वंचित, अधिक उपेक्षित, अधिक गरीब हैं, उन्हें आरक्षण में प्राथमिकता मिलेगी। लेकिन मेरा मानना है कि सरकारी नौकरियों में से जातीय आरक्षण पूरी तरह से खत्म किया जाना चाहिए। अब से 60-65 साल पहले और विश्वनाथ प्रताप सिंह के जमाने तक मेरे-जैसे लोग आरक्षण के कट्टर समर्थक थे। डॉ. लोहिया के साथ मिलकर हम अपने छात्र-जीवन में नारे लगाते थे कि ‘पिछड़े पाएं सौ में साठ’ लेकिन जातीय आरक्षण के फलस्वरूप मुट्टीभर लोगों ने सरकारी ओहदों पर कब्जा कर लिया। उन्होंने अपनी नई जाति खड़ी कर ली। उसे अदालत ने ‘क्रीमी लेयर’ जरूर कहा लेकिन उस पर रोक नहीं लगाई।
ये आरक्षण जन्म के आधार पर दिए जा रहे हैं, जरूरत के आधार पर नहीं। इसकी वजह से सरकार में अयोग्यता और पक्षपात को प्रश्रय मिलता है और करोड़ों वंचित लोग अपने नारकीय जीवन से उबर नहीं पाते हैं। यदि हम देश के 60-70 करोड़ लोगों को समाज में बराबरी के मौके और दर्जे देना चाहते हों तो हमें शिक्षा में 60-70 प्रतिशत आरक्षण बिना जातीय भेदभाव के कर देना चाहिए। जो भी गरीब, वंचित, उपेक्षित परिवारों के बच्चे हों, उन्हें मुफ्त शिक्षा, मुफ्त भोजन, मुफ्त वस्त्र और मुफ्त निवास की सुविधाएं दी जानी चाहिए। देखिए, ये बच्चे हमारी तथाकथित ऊंची जातियों के बच्चों से भी आगे निकलते हैं या नहीं ?
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक