देश में कोरोना से लड़ाई तो जारी थी ही कि अब आरक्षण के मुद्दे पर लड़ाई छिड़ गई। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि आरक्षण कोई मूलभूत अधिकार नहीं है। आत्सम्मान और अस्तित्व के नाम पर अधिकार की दुहाई वाली दलीलों पर सुप्रीम कोर्ट ने हुकूमतों के लिए एक बड़ा सवाल छोड़ दिया। इससे पहले एससी-एसटी श्रेणी में क्रीमी लेयर पर कोर्ट बोल चुका है। भारत में आरक्षण एक भावनात्मक और राजनीतिक मुद्दा है। जिनके पास है वो इसे छोड़ना नहीं चाहता है और जिनके पास नहीं है वो सूची में नाम जुड़वाना चाहता है।
आजादी के सात दशक बाद ये बहस चल पड़ी है कि क्या आरक्षण की मूल नीति में बदलाव की जरूरत है? क्या गरीबी की कोई जाति नहीं होती है, क्या आरक्षण पाने वाली जातियां अब शासक वर्ग का हिस्सा बन गई हैं? आरक्षण का लाभ खास जातियों तक सीमित रह गया है क्या? ये सवाल तब शुरू हुए हैं जब कि इस दौर में आरक्षण के खिलाफ बोलना राजनीतिक आत्महत्या के बराबर माना जाता है। कोई भी दल, कोई भी नेता इसके खिलाफ जाने की सोचना तो दूर की बात है, इसके खिलाफ बोलने की हिमाकत नहीं कर सकता। राजनीति में दलों के मिलने की बात तो आपने कई बार देखी होगी लेकिन आरक्षण ही एक ऐसा राजनीतिक मुद्दा है जो सभी दलों के दिलों का मिलन भी करवाता है। तभी तो देश की सबसे बड़ी अदालत को भी कहना पड़ गया कि कमाल है- सभी राजनीतिक दल एक साथ हैं।
हुआ यूं कि तमिलनाडु की डीएमके, एआईडीएमके, सीपीआई-एम सहित तमाम पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका के जरिये मांग की थी कि राज्य के मेडिकल कॉलेजों में ओबीसी आरक्षण को 50 फीसदी कर दिया जाये। याचिका में अपील की गयी थी कि सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार और मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को निर्देश दे कि वे तमिलनाडु पिछड़ा वर्ग, एससी/एसटी आरक्षण एक्ट, 1993 को लागू करें। जिस पर सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एल नागेश्वर राव, जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस एस रवीन्द्र भट ने जो कहा वो गौर से सुनने लायक है- “आरक्षण का अधिकार कोई मूलभूत अधिकार नहीं है। आप ये पेटीशन खुद वापिस लेंगे, या फिर हम ये काम करें आपके लिए?
सुप्रीम कोर्ट की दूसरी टिप्पणी- “कमाल है, तमिलनाडु में नीट के आरक्षण प्रावधानों को लेकर लगभग सभी राजनीतिक पार्टी एक साथ है”। वैसे सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं को सलाह दी कि वे चाहें तो मद्रास हाई कोर्ट में ऐसी अपील कर सकते हैं।
इधर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया और इधर सत्ता और विपक्ष की दूरियां मिटती दिखीं। पटना और दिल्ली में दो तरह की हरकत देखने को मिली। एक, बीजेपी का फटाफट रिएक्शन और दूसरा दलित नेताओं का वैसे ही एक्टिव हो जाना जैसे वे 2018 में SC/ST एक्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने के बाद सक्रिय हुए थे। एनडीए सरकार में मंत्री और लोजपा नेता रामविलास पासवान ने तो यहां तक कह दिया कि आरक्षण का फैसला बाबा साहेब आंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच हुए पूना पैक्ट की उपज है। इसपर सवाल उठाना, पूना पैक्ट को नकारना है।
सत्ताधारी पार्टी को भी समझ आ गया कि कोर्ट के फैसले का बचाव करना किसी भी तरह से मुनासिब नहीं है। उसे मालूम था कि सफाई दिए बिना वो कतरा कर नहीं निकल सकती। इसके लिए पार्टी के मुखिया जगत प्रकाश नड्डा को आगे किया।
देश में आरक्षण का मुद्दा सालों से चला आ रहा है। आजादी से पहले ही नौकरियों और शिक्षा में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण देने की शुरुआत कर दी गई थी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। बशर्ते, यह साबित किया जा सके कि वे औरों के मुकाबले सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं। इसी आधार पर अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण लागू किया गया।
आरक्षण का इतिहास
1858 में ज्योतिबा फुले ने हन्टर कमीशन के सामने जनसंख्या के अनुपात में पिछड़ों को प्रतिनिधित्व देने की मांग की।
आजादी के पहले प्रेसिडेंसी रीजन और रियासतों के एक बड़े हिस्से में पिछड़े वर्गों (बीसी) के लिए आरक्षण की शुरुआत हुई थी।
महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति साहूजी महाराज ने 1902 में पिछड़े वर्ग से गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें उनकी हिस्सेदारी (नौकरी) देने के लिए आरक्षण शुरू किया था।
1909 में अंग्रेजों ने प्रशासन में हिस्सेदारी के लिए आरक्षण शुरू किया।
1930, 1931, 1932 में डॉ अम्बेडकर ने प्रतिनिधित्व की मांग गोलमेज सम्मेलन में की।
जब भी आरक्षण का जिक्र होता है तो अक्सर ये कहा जाता है कि महात्मा गांधी और बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के बीच पूना पैक्ट का ही परिणाम है कि आरक्षण एक संवैधानिक अधिकार है। आरक्षण खैरात नहीं है। ऐसे में जानते हैं कि पूना पैक्ट असल में क्या था?
पूना पैक्ट
पुणे की यरवदा जेल में बंद महात्मा गांधी और डॉ भीमराव अंबेडकर के बीच दलितों के अधिकार और उनके हितों की रक्षा के लिए पूना पैक्ट हुआ था। कहा जाता है कि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने बड़े बेमन से इस पैक्ट पर हस्ताक्षर किए थे। 17 अगस्त 1932 को ब्रिटिश सरकार ने कमिनुअल अवॉर्ड की शुरुआत की। इसमें दलितों को अलग निर्वाचन का स्वतंत्र राजनीतिक अधिकार मिला। इसके साथ ही दलितों को दो वोट के साथ कई और अधिकार मिले। दो वोट के अधिकार के मुताबिक देश के दलित एक वोट से अपना प्रतिनिधि चुन सकते थे और दूसरे वोट से वो सामान्य वर्ग के किसी प्रतिनिधि को चुन सकते थे। यानी यदि यह लागू हो जाता तो संभवतः दलितों को हमेशा के लिए औपचारिक तौर पर हिन्दुओं से अलग पहचान मिल जाती। राजमोहन गांधी की पुस्तक ‘अंडरस्टैंडिंग दी फाउंडिंग फादर्स’ के अनुसार महात्मा गांधी दलितों को दिए इन अधिकारों के विरोध में थे। महात्मा गांधी का मानना था कि इससे हिंदू समाज बंट जाएगा। महात्मा गांधी दलितों के उत्थान के पक्षधर थे लेकिन वो दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र और उनके दो वोट के अधिकार के विरोधी थे। महात्मा गांधी को लगता था कि इससे दलित हिंदू धर्म से अलग हो जाएंगे। हिंदू समाज और हिंदू धर्म विघटित हो जाएगा।महात्मा गांधी ने पुणे की यरवदा जेल में आमरण अनशन शुरू कर दिया। उन्होंने कहा कि वो दलितों के अलग निर्वाचन के विरोध में अपनी जान की बाजी लगा देंगे। गांधी ने इन परिस्थितियों के लिए बार-बार सवर्णों को ही जिम्मेदार ठहराया था और उन्हें आत्मचिंतन करने के लिए प्रेरित किया था। इसका असर भी दिखना शुरू हुआ। जगह-जगह मंदिरों, तालाबों और कुओं को अपने आप ही दलितों के लिए खोला जाने लगा। हालांकि अंबेडकर अब मात्र इन सबसे ही संतुष्ट होनेवाले नहीं थे। वे स्पष्ट रूप से राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी चाहते थे। अनशन की वजह से महात्मा गांधी की तबीयत लगातार बिगड़ने लगी। अंबेडकर पर शोषित तबकों के अधिकारों से समझौता कर लेने का दबाव बढ़ने लगा। देश के कई हिस्सों में भीमराव अंबेडकर के पुतले जलाए गए, उनके खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए। 24 सितंबर 1932 को शाम 5 बजे पुणे की यरवदा जेल कहा जाता है कि बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने बेमन से रोते हुए पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर किए थे। उस समझौते से दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र और दो वोट का अधिकार खत्म हो गया। उसके बदले में प्रांतीय विधानमंडलों में दलितों की आरक्षित सीटों की संख्या 71 से बढ़ाकर 148 कर दी गई और केंद्रीय विधायिका में कुल सीटों का 18 फीसदी करने का प्रावधान किया गया। इस समझौते की सबसे अहम बात यह थी कि सिविल सर्विसेज में दलित वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने के लिए राजी हो गई। यानी सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान इसी पैक्ट की देन है।
आरक्षण का मुद्दा उठा तो कुछ नेताओं ने मांग की कि आरक्षण के प्रावधान को संविधान की नौवीं सूची में शामिल कर लिया जाए ताकि उसमें कभी कोई संशोधन न हो सके।
क्या है 9वीं अनुसूची?
इस सूची का निर्माण 1951 में नेहरू-काल में हुआ था। केंद्र सरकार ने संविधान में संशोधन करके 9वी अनुसूची का प्रावधान किया था ताकि उसके द्वारा किये जाने वाले भूमि सुधारों को अदालत में चुनौती न दी जा सके।
उस समय सरकार द्वारा शुरू किये गए भूमि सुधारों को मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार की अदालतों में चुनौती दी गई थी, जिसमें से बिहार में इस कानून को अदालत ने अवैध ठहराया था।
इस विषम स्थिति से बचने और सुधारों को जारी रखने के लिये सरकार ने संविधान में यह अनुसूची प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, 1951 के द्वारा जोड़ी थी।
इसके अंतर्गत राज्य द्वारा संपत्ति के अधिग्रहण की विधियों का उल्लेख किया गया है। इसमें अबतक 284 कानून जुड़े हुए हैं।
लेकिन ध्यान देने वाली बात ये है कि : अब तक यह मान्यता थी कि नौवीं अनुसूची में सम्मिलित कानूनों की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती। 11 जनवरी, 2007 के संविधान पीठ के एक निर्णय द्वारा यह स्थापित किया गया कि नौवीं अनुसूची में सम्मिलित किसी भी कानून को इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि वह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है तथा उच्चतम न्यायालय इन कानूनों की समीक्षा कर सकता है।
हमारे देश में करोड़ों-दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों में से मुट्ठीभर यानी कुछ सौ परिवारों ने आरक्षण के चलते सरकारी नौकरियों पर कब्जा कर रखा है। इन संपन्न और शिक्षित लोगों को अपने ही करोड़ों वंचित लोगों की कोई परवाह नहीं है। यह एक नया सवर्ण वर्ग देश में खड़ा हो गया है।
भारत में आरक्षण
भारत में 49.50 प्रतिशत आरक्षण का प्रवाधान हैं।
दलित 15%
आदिवासी 7.5%
ओबीसी 27%
इसके अलावा आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण का प्रवाधान साल 2019 में किया गया।
1963 में एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आमतौर पर 50 फ़ीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता है। क्योंकि एक तरफ हमें मेरिट का ख़्याल रखना होगा तो दूसरी तरफ हमें सामाजिक न्याय को भी ध्यान में रखना होगा। अगल-अलग राज्यों में आरक्षण देने का तरीका अलग है।
जिसके तहत महाराष्ट्र में शिक्षा और सरकारी नौकरियों में मराठा समुदाय को 16% और मुसलमानों को 5% अतिरिक्त आरक्षण दिया गया।
तमिलनाडु में सबसे अधिक 69 फीसदी आरक्षण लागू किया गया है।
एक अनुमान के मुताबिक देश की 70 से 75 फीसदी आबादी आरक्षण के दायरे में आती है। इसमें वो लोग भी शामिल हैं जो आर्थिक रुप से पूरी तरह संपन्न हैं, लेकिन आरक्षण का फायदा उठाना नहीं भूलते हैं। इस बात से आरक्षण नीति के उद्देश्य, औचित्य और इस पर अमल के तरीके को लेकर गंभीर सवाल खड़े हो गए। सामाजिक न्याय की जो व्यवस्था उसके सही परिणाम मिल रहे हैं या नहीं? जो सक्षम हैं उन्हें आरक्षण की सुविधा नहीं मिलनी चाहिए, बल्कि आरक्षण उन्हें मिलनी चाहिए जो इसके असली हकदार हैं। जरूरत यही है की लाभ जरूरतमंद को मिले तभी संविधान की मूल भावना का सम्मान हो पाएगा।
आजादी के बाद जब हमारे संविधान निर्माताओं ने आरक्षण लागू किया था, तो उस समय ये कहा गया था कि आरक्षण सिर्फ 10 वर्ष के लिए होगा और अगर जरूरत पड़ी तो इसे आगे बढ़ाया जाएगा। बाबा साहब आंबेडकर ने ही आरक्षण की सबसे ज्यादा वकालत की थी। लेकिन वो ये मानते थे कि आरक्षण सदा के लिए नहीं हो सकता। कहा ये भी जाता है कि बाबा साहब आंबेडकर ने शुरुआत में ये भी सुझाव दिया था कि 10 वर्ष की जगह पर आरक्षण को 30 या 40 वर्षों के लिए निश्चित कर दिया जाना चाहिए और इसमें विस्तार करने की किसी भी संभावना को खत्म कर दिया जाए। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि राजनीतिक दलों ने आरक्षण को चुनाव में जीत हासिल करने का हथियार बना लिया। राजनीति के खिलाड़ियों ने बाबा साहब के नाम और उनपर अपना आधिपथ्य जाहिर करने की तो बखूबी कोशिश की लेकिन बाबा साहब के मूल विचारों को रत्ती भर भी नहीं समझा।
26 नवंबर 1949 को संविधान सभा को संबोधित करते हुए बाबासाहेब ने कहा- मैं संविधान की अच्छाईयां गिनाने नहीं जाऊंगा क्योंकि मेरा मानना है कि ‘संविधान कितना भी अच्छा क्यों ना हो वह अंतत: खराब सिद्ध होगा, यदि उसे अमल / इस्तेमाल में लाने वाले लोग खराब होंगे। वहीं संविधान कितना भी खराब क्यों ना हो, वह अंतत: अच्छा सिद्ध होगा यदि उसे उसे अमल / इस्तेमाल में लाने वाले लोग अच्छे होंगे।’
बाबा साहेब हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन वे आज अचानक आकर देख पाएं तो उनकी आत्मा को भी बेहद कष्ट की अनुभूति होगी। आरक्षण तो कुछ वक्त के लिए दिया गया एक मददगार संकेत था। सदियों के सताए हुए लोगों को आगे ले जाने का दूरदृष्टिवान बाबा साहेब की उंगली का इशारा। हम उसी मुद्रा में उनकी मूर्तियां चौराहों पर खड़ी करके आरक्षण को ही धर्म बनाकर बैठ गए।
— अभिनय आकाश
(नोट: आम बोल-चाल की भाषा में दलित शब्द ज्यादा प्रचलित है, इसलिए इसका उपयोग किया गया है। हालांकि बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले का सम्मान करते हुए, दलित शब्द को अनुसूचित जाति/जनजाति समझा/पढ़ा जाए।)